
कार्यशाला का उद्देश्य बच्चों को अपराध और नशे जैसी काली राहों से बचाकर उन्हें मुख्यधारा से जोड़ना था। बिलासपुर रेंज आईजी डॉ. संजीव शुक्ला, एसएसपी रजनेश सिंह, और यूनिसेफ के राज्य प्रमुख अधिकारी इस कार्यक्रम में शामिल हुए। सभी ने इस बात पर जोर दिया कि डायवर्जन प्रक्रिया बच्चों को सुधार की दिशा में मोड़ने का एक प्रभावी माध्यम है।आईजी डॉ. शुक्ला ने निर्देश जारी करते हुए कहा कि अब हर तीन महीने में एसपी मीटिंग के जरिए डायवर्जन कार्यक्रम की समीक्षा की जाएगी, वहीं हर छह महीने में आईजी स्तर पर इसकी व्यापक समीक्षा होगी। यह निर्णय दर्शाता है कि पुलिस अब इस पहल को सिर्फ कागज़ी काम नहीं, बल्कि जमीनी हकीकत में तब्दील करने के लिए प्रतिबद्ध है।

कार्यशाला के दौरान किशोर न्याय अधिनियम के प्रावधानों को समझाया गया और यूनिसेफ की टीम ने केस स्टडी आधारित लर्निंग के ज़रिए प्रतिभागियों को बच्चों के मनोविज्ञान,उनकी ज़रूरतों और उनके प्रति सहानुभूतिपूर्ण रवैये को अपनाने की जानकारी दी।एसएसपी रजनेश सिंह ने बताया कि पहले इस तरह के डायवर्जन मामलों में बच्चों की संख्या 15-20 हुआ करती थी, लेकिन अब यह आंकड़ा 170 के पार पहुंच गया है। उन्होंने बताया कि मोबाइल, घर के माहौल और नशे जैसे कारणों से बच्चे बहक जाते हैं, ऐसे में पुलिस की भूमिका सिर्फ सज़ा देने की नहीं बल्कि सुधारने की भी है।यूनिसेफ छत्तीसगढ़ राज्य में बाल अधिकारों, स्वास्थ्य, शिक्षा और संरक्षण को लेकर सक्रिय रूप से काम कर रहा है। संगठन बाल विवाह, बाल श्रम और बाल तस्करी जैसे मामलों को रोकने के लिए सरकार, समाज और न्यायिक तंत्र के साथ मिलकर कार्य करता है।

इस कार्यशाला के माध्यम से बिलासपुर पुलिस ने यह स्पष्ट संदेश दिया है कि अब बच्चों के खिलाफ अपराध की रोकथाम केवल कानून से नहीं, बल्कि संवेदनशीलता और समाज की सहभागिता से होगी।डायवर्जन प्रक्रिया को सामाजिक सुरक्षा की मुख्यधारा से जोड़कर, बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए एक ठोस कदम उठाया गया है।